आपनोॅ बात
काल के छाती पर गाड़लोॅ कालपात्र
शब्द तेॅ ब्रह्म होय छै। अक्षर सें मिली बनलोॅ यही शब्दें समय केॅ बान्है छै। काल के गति केॅ नापै छै यही शब्दें, इतिहास भी बनै छै यही शब्दोॅ सें आरो साहित्य भी। काल के छाती पर जे गाड़लोॅ जाय छै कालपात्र, सोना के कलशी में भरी केॅ या बाल्मीकि, व्यास नांकी साहित्य रची केॅ, ओकरोॅ माध्यम शब्द ही होय छै।
आय वहेॅ शब्द के माध्यम सें काल के छाती पर गाड़ी रहलोॅ छियै कालपात्र जे आवै वाला समय में याद करलोॅ जैतेॅ।
सब चीज मिटी जैतेॅ मतुर ई शब्द कहियो नै मिटतै, यै लेलोॅ कि शब्देॅ ब्रह्म छेकै। सत्य, शिव, सुन्दर शब्द ही तेॅ छेकै। १९९५ के अगस्त महिना छेलै। समय साहित्य सम्मेलन के कार्यालय में हम्में आरो अमरेन्द्र बैठलोॅ छेलियै। चौकी पर ढेर सिनी पत्रिका, किताब बिखरलोॅ रहै। वै में सें एक पत्रिका ‘जनसŸा सबरंग’ साहित्य विशेषांक ०६ नवम्बर, १९९४ के अंक छेलै। तखनी यै पत्रिका में हिन्दी के दिग्गज साहित्यकार कमलेश्वर आरो राजेन्द्र
यादव के उटकापैंची, के की करलकै, जीवन आरो साहित्य सें जुड़लोॅ प्रसंग प्रकाशित होय छेलै। ऐकरोॅ अंक नियमित लैकेॅ पढ़ना बड्डी आनंद दै वाला होय छेलै। बतौर सभ्य भाषा में गाली-गलौज तक चली रहलोॅ छेलै।
ऐकरे एगोॅ अंक में आवरण पृष्ठ पर बड़ोॅ अक्षरोॅ में लिखलोॅ छेलै- ‘‘जो रचेगा वही बचेगा’’। मित्र अमरेन्द्र ने पत्रिका के ऊ आवरण फाड़ी केॅ हमरोॅ काठोॅ के बनलोॅ आलमारी पर गोंद लगाय केॅ साटतें हुअें कहलकै-‘‘विमल, ई सुक्त वाक्य केॅ जीवन में ढालै के जरूरत छै। जें रचतै, वहेॅ बचतै। रचलकै टा रहतै, कालें कालकोॅ सूर्य देखेॅ के अवसर देतै की नै, के जानेॅ। राते रात इतिहास रची केॅ इतिहास बनी जोॅ।’’ शायद यहीं कारणें अमरेन्द्र के पास साठ सें अधिक ओकरोॅ आपनोॅ रचलोॅ किताब छै। एक दाफी जौं देखवैयां देखै छै तेॅ अचरज सें ओकरोॅ माथोॅ घूमी जाय छै। साहित्य रोॅ कोन ऐन्होॅ विधा छै जैमें अमरेन्द्र के रचलोॅ साहित्य नै छै। हिन्दी आरो अंगिका दूनोॅ भाषा में इनकोॅ रचलोॅ
प्रचुर साहित्य छै।
अंगिका तेॅ इनकोॅ पराने छेकै। अंगिका में सानेट, माहिया इनके देन छेकै। अंगिका लेली मीथक होय चुकलोॅ डॉ. अमरेन्द्र पैंसठ बरस के उमिर में भी चैन सें बैठलोॅ नै छै। एक- एक पल साहित्य रचै में ही बिताय रहलोॅ छै। आरो खुद हम्में भी जे साहित्य सिरजै में भिड़लोॅ छियै तेॅ कहाँ रूकलोॅ छियै। अंगिका आरो हिन्दी दूनोॅ में अमरेन्द्र के बराबर लेखन के संकल्प साथें दिन-रात एक करी रहलोॅ छियै। सम्मेलन जेकरोॅ स्थापना १९७८ में करलियै ओकरोॅ संस्थापक अध्यक्ष जौं डॉ. अमरेन्द्र छेकै तेॅ हम्में संस्थापक महामंत्री। दूनोॅ जटायु के पांखोॅ रोॅ ताकत लैकेॅ साथे-साथ उड़ी रहलोॅ छियै सरंगोॅ के ऊँचाई नापै लेॅ। ई की छेकै ? कालोॅ के छाती पर कालपात्र गाड़ै के ही प्रयास तेॅ छेकै ई।
समय साहित्य सम्मेलन के सतरह-अठारह महाधिवेशन जेकरा में सौ सें बेशी राष्ट्रीय स्तर के कवि साहित्यकार केॅ सम्मानित/पुरस्कृत करलियै। कर्ण पुरस्कार सें डॉ. श्याम सिंह शशि, डॉ. रामाश्रय प्रसाद यादव, डॉ. डोमन साहु समीर, तेजनारायण कुशवाहा, भुवनेश्वर सिंह भुवन, महाकवि सुमन सुरो, डॉ. शिवनारायण आरो अन्य पुरस्कारोॅ सें प्रख्यात कथाकार सच्चिदानन्द, धूमकेतु, डॉ. अशोक लव (दिल्ली), पùश्री डॉ. लक्ष्मीनारायण दूबे, (सागर वि. वि. म.प्र.), निर्मल मिलिन्द, डॉ. नरेश पाण्डेय चकोर, ऐसनोॅ धाकड़ साहित्यकारोॅ केॅ पुरस्कृत करै के श्रेय सम्मेलन केॅ प्राप्त छै। यै में सम्मेलन के संरक्षक खुशीलाल मंजर, अश्विनी, सुरेन्द्र प्रसाद यादव के भी सहयोग कम नै छै। बादोॅ में हमरोॅ विद्यार्थी प्रदीप प्रभात, प्रो. नवीन निकुंज, कुमार संभव, प्रो. जयप्रकाश गुप्त, सुरेश विन्द, जनार्दन प्रसाद नें साहित्य सिरजै के साथें सम्मेलन केॅ जे ताकत प्रदान करलकै, ऐकरा भुलैलोॅ नै जावेॅ पारेॅ। ई सबके सब इतिहास खुद लिखै आकि बनै के प्रयास में सत्त लागलोॅ छै। संयोग आकि ईश्वर के वरदान कहोॅ यै साहित्यकारोॅ में प्रदीप केॅ छोड़ी केॅ शेष आठोॅ एक ही गाँव चंगेरी मिर्जापुर के रहै वाला छेकै। आबै वाला देश के कोना रोॅ कोय भी साहित्यकार जबेॅ ई देखै सुनै छै तेॅ अचरज सें भरी केॅ कहै छै कि-‘‘धन्य छौं तोरोॅ गाँव रोॅ मांटी।’’
तेरोॅ बरस के उमर सें ही लिखै के चसका लागी गेलोॅ रहै। हमरा याद छै, हम्में नौंमा कलासोॅ के छात्र छेलियै। एकदम साधारण विद्यार्थी। पढ़ै में रूचि नै के बराबर। ई तेॅ पिताजी स्व. चक्रधर प्रसाद यादव के ही देन छेकै कि केन्हौ केॅ पढ़ी लेलियै। पिताजी एक किसान ही नै बलुक एक कठोर, अनुशासनप्रिय अभिभावक भी छेलै। हुनी
नाटक आरो सांस्कृतिक चेतना रोॅ गांवोॅ में एक मिशाले छेलै। हमरा नाटक में बच्चै सें भाग लैके चस्का जौं हुनी लगैलकै तेॅ साथें-साथ लिखाय-पढ़ाय केॅ टंच भी करी देलकै। १९६५ में मैट्रीक पास करला के बाद जबेॅ कॉलेजोॅ के हवा लागलै तेॅ इतिहास आरो साहित्य के किताबोॅ में बेहिसाब डूबी गेलियै। पढ़वोॅ आरो लिखवोॅ दूनो साथे-साथ होय रहलोॅ छेलै। मतुर हमरा बच्चा मनोॅ पर गाँव में होय वाला नाटकें बेशी असर डाललकै। १९६७ में हम्में पहिलोॅ नाटक ‘‘माँ की ममता’’ लिखी केॅ जबेॅ ओकरा गाँव के बरसों पुरानोॅ नाटक क्लब के निर्देशक एस. एन. मेहता के
सामना में मंचित करै वास्तेॅ राखलियै तेॅ गाँव के कलाकारें आरो खुद हुनी रूचि नै लैकेॅ कोय दोसरा लेखक के लिखलोॅ नाटक दू रात खेलै लेली चुनलकै। वै में एक नाटक चतुर्भज के लिखलोॅ ‘श्री कष्ष्ण’ छेलै जेकरा में शिशुपाल के पाठ करी केॅ हम्में आपनोॅ अभिनय क्षमता सें सबकेॅ नै सिरिफ अचरजोॅ में डाललियै बलुक आपनोॅ प्रतिभा के लोहा मनवाय में भी सफल होलियै। यै बीचोॅ में लेखक कहिकेॅ हमरोॅ मखौल उड़ैवोॅ, नाटककार बोली केॅ
फवती कसबोॅ शुरू होय गेलोॅ छेलै। हमरा में शक्ति नै छै वै शर्मनाक क्षण के स्थिति बयां करबोॅ। रसता चलबोॅ कठिन होय गेलोॅ छेलै। सच ई छेलै कि ओकरा सब केॅ लेखक कवि होवोॅ एक कठिन आकि बहुत बड़ोॅ चीज होवोॅ लागै छेलै। हमरोॅ उमर देखी केॅ भी ई ओकरा सिनी के माथा में पची नै रहलोॅ छेलै। कुछ लोग जे थोड़ोॅ बड़ोॅ या समझ वाला छेलै, उनका ईर्ष्या भी छेलै।
मतुर हम्मूं हिम्मत हारै वाला कहाँ छेलियै। हमरा तेॅ काल के छाती पर निरभय नाचना छेलै। हमरा तेॅ काल के फन नाथै लेॅ भगवानें बनाय केॅ भेजलेॅ छेलै। ‘श्रीकृष्ण’ नाटक फरवरी, सरोसती पूजा के अवसर पर होलोॅ छेलै। हम्में अपना केॅ सिद्ध करै के कोशिश में लगातार लागलोॅ छेलियै। हमरा आपनोॅ यै नाटक के मंचन छोड़ाय केॅ कोय दोसरोॅ काम सूझतै नै छेलै। दरदर भटकी रहलोॅ छेलियै। दुरयोग, वहेॅ साल अकाल पड़ी गेलै। हथिया, कनियां नछत्तर में एक बून बरसा नै पड़लै। सीसैलोॅ धान खेतैं में सूखी केॅ मरी गेलै। सौसे दिगारोॅ में भूखमरी के समस्या, लेकिन धन्य तखनकोॅ सरकार जें आदमी केॅ भूखोॅ सें मरेॅ नै देलकै। जंडोॅ, कुरथी,बाजरा, गेहूँ घरेघर पाटी देलकै। हौ साल के सत्तू आरो घांठोॅ जिनगी भर याद रहतै।
है बात हम्में कहवौं कि गाँव केॅ जंगल में मंगल मनावै के आदत छै। मोगल सें ब्रिटिश काल तांय यै देशोॅ के लोगें दुःख के ई दंश तेॅ भोगनैय छै। परव, त्योहार बिना मनैनें ई बेचारा केनां जिंदा बचतै। दशहरा नगीच छेलै। मिर्जापुर पुवारी टोला के नारदी यादव के बड़का भाय दिना यादव सांझ केॅ दुआरी पर बैठलोॅ छेलै। पचास-साठ के बीच में उमर होतें होतै दीना यादव के। एक नम्बर के नारदी, गोसांय गीतोॅ के गवैया। हुनी जबेॅ ढ़ोलक, झाल आरो करताल के संगत में गीत गावेॅ लागै तेॅ केकरा नै आंखी सें लोर गिराय दै। हम्में आपनोॅ एक उमरिया मित्र रामदुलार
यादवोॅ कन सें घोॅर जाय रहलोॅ छेलियै। दीना यादवें हमरा बड्डी मानै छेलै। हूनी बोलैलकै आरो बैठला पर कहलकै-‘‘की अनिरुध, कोरयासी टोला वाला तोरो लिखलोॅ नाटक नै खेललौं आरो उलटे मजाक उड़ाय रहलोॅ छौं। दशहरा में तोरोॅ नाटक यै टोला वाला के कलाकारोॅ सें खेलवाय दै छियौं। तोंय आपनोॅ नाटक ‘माँ की ममता’ रोॅ कल्हे पाठ वितरण करी दहोॅ। रिहर्सल, निर्देशन तोरोॅ जिम्मेवारी आरो सब हमरा पर छोड़ी केॅ निचित होय
जा। रिहर्सल हमरेॅ दुआरी पर होतै।’’ हौ रोज के खुशी रोॅ हम्में वर्णन नै करेॅ पारौं। अन्हरा खोजेॅ दूनोॅ आँख। हमरा याद छै कि हम्में की रं दिन-रात एक करी केॅ नाटक तैयार करनें छेलियै।
समय पर रिहर्सल शुरू करवोॅ, फेरू दुपहर आरो रात तांय सबकेॅ पाठ रटबैवोॅ, फेरू निर्देशित करवोॅ, जीवन भर लेली याद के विषय बनी गेलोॅ छै। नाटक होलै। देखवैया के आंखी रोॅ कीच्ची छूटी गेलै। संभारतें भीड़ नै सम्हरै छेलै। योगेन्द्र यादव, शिवनंदन, देवेन्द्र, उपेन्द्र यादव आरो गिरीशें जिनगी भर यादोॅ में बसी जाय वाला भूमिका करलकै। जनानी के पाठोॅ में रामदुलार छहाछत अप्सरेॅ जुंगा लागै छेलै। हीरालाल के जोकरी के तेॅ कोय जबाबे नै छेलै। वैसें भी ई आदमी के जोकरी सौसें राज्य भर में प्रसिद्ध छेलै। ऐकरोॅ बाद हमरोॅ लेखक होय के क्षमता पर कहियोॅ प्रश्न नै
उठलै। सौसे गाँव पाँचोॅ टोला चंगेरी मिर्जापुर एक होय केॅ नाटक खेलै लागलै। पत्ती साल दू नाटक लिखी केॅ हमरा गाँव में दै केॅ वादा साथें विवाद खतम होलै।
तखनी सच्चेॅ में साहित्य के कोय भी गतिविधि क्षेत्र भर में नै छेलै। साहित्य आकि गीत, कविता, कहानी, उपन्यास ई गामोॅ के एक आदमी लिखै छै, ऐकरा अचरज आरो श्रद्धा के साथ गामें मानी लेनें छेलै। नाटक गाँव में आभियो
होय छै, जै में मंच पर सें बिना हमरा संबोधन के नाटक शुरू कोय भी टोला वाला नै करै छै। 1970-71 में भागलपुर वि.वि. सें हम्में टी.एन.बी. कॉलेज में हिन्दी ऑनर्स के छात्र छेलियै। साहित्य में लेखन के दिशा खोजै में भटकी रहलोॅ छेलियै। प्रकाशन लेली बौआय रहलोॅ छेलियै। धर्मयुग, सारिका, हिन्दुस्तान, कादिम्बनी में रचना भेजियै तेॅ सीधे खेद सहित लौटी आबै।
1969 में हमरोॅ कहानी बाबा भारती के पत्रिका ‘चन्द्रकिरण’ बाँका सें प्रकाशित होयवाली राष्ट्रीय स्तर के पत्रिका
में ‘बंधन’ नाम सें एक कहानी छपलै। एकरा सें लिखै के ताकत तेॅ जरूरे मिललै मतुर जे चाहै छेलियै ऊ नै होय रहलोॅ छेलै। यै बीचोॅ में तेरह नाटक, दू उपन्यास, दर्जन सें बेशी कहानी, कविता, गीत हम्में लिखी चुकलोॅ छेलियै। यहेॅ समय छेलै जबेॅ हमरोॅ भेंट हिन्दी के ख्यातिप्राप्त नाटककार डॉ. रामकुमार वर्मा सें होलै। हुनी वि.वि. में एम.ए. हिन्दी विभाग सें आमंत्रित छेलै आरो शायद पी.एच.डी. सें संबंधित कोनोॅ ‘भैवा’ में एैलोॅ रहै। तखनी हिन्दी विभाग में हमरा सीनी के गुरू जिनी ऑनर्स में भी नियमित क्लास लै छेलै, डॉ. राधाकृष्ण सहाय, डॉ. विजेन्द्र नारायण सिंह, श्रीहरि दामोदर, डॉ. तपेश्वर नाथ के छात्र होवोॅ गौरव के बात छेलै। डॉ. राधाकृष्ण सहाय अभी एक प्रसिद्ध नाटककार आरो कथाकार के रूप में देश भरी में चर्चित छै। वहूँ समय में हुनी एक विद्वान प्रोफेसर के रूपोॅ में जानलोॅ जाय छेलै।
यहेॅ साल हिन्दी के महान कथाकार ‘मैला आँचल’ के लेखक फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ सें हुनका गाँव हिगना जायकेॅ उनकोॅ दर्शन करै के मौका मिललै। संयोग छेलै कि हम्में एक मित्र रासबिहारी सिंह के घोॅर तेगछिया पटेगना गेलोॅ रहियै। वहाँ सें रेणु जी रोॅ गाँव नगीचे रहै। फागुन के मदमस्त महिना छेलै। हुनी गाँव एैलोॅ रहै। उनका सें मिलला के बाद अनुभव करलियै कि झूठेॅ हम्में मिलै सें डरै छेलियै। बड़ोॅ आदमी रोॅ दिल भी बड़ोॅ होय छै। जी भरि केॅ साहित्य पर चरचा होलै।
इनका सिनी सें मिली केॅ बतियाबै में ही ई बातोॅ के ज्ञान होलै कि आभी तांय जे हम्में लिखै छियै ऊ अभ्यास के क्षण रोॅ लेखन छेकै। हमरा बहुत ऊपर ताकै के जरूरत छै। आपनोॅ एक अलग लीक बनावै लेली श्रेष्ठ पढ़ै के जरूरत छै। श्रेष्ठ बिना पढ़नें श्रेष्ठ लिखलोॅ नै जावेॅ सकेॅ। रेणु जी रोॅ सुनैलोॅ एक दोहा हमरा साहित्य लेखन के आधार मंत्र होय गेलै जेकरा हम्में आय तलक गेठी में बान्ही केॅ राखनें छियै, जें हमरा लिखै के ताकत दैकेॅ साथें लेखन के दिशा आरो दशा पर विचारै लेली विवश करलकै। ऊ दोहा छेकै-
‘‘लीक-लीक सबहिं चलै, लीकैं चलै कपूत।
लीक छाड़ी तिन्हेॅ चलै, शायर सिंह सपूत।।’’
यही दोहा रोॅ ताकत छेकै कि हम्में आय साहित्य में नया सिरा सें माथोॅ उच्चोॅ करी केॅ खाड़ोॅ छियै। यै दिशा में हम्में आपनोॅ देवतुल्य स्व. पूज्य पिता चक्रधर प्रसाद यादव जे मंच अभिनय के चक्रवर्ती कलाकार छेलै उनकोॅ प्रभाव निश्चित रूप सें हमरा लेखन पर पड़लोॅ छै आरो माय पार्वती देवी जिनका कंठोॅ में सरोसती विराजै छेलै। लोकगाथा काव्य रानी सारंगा, बृजाभार, बिहुला, नल-दमयंती, चौहरमल, हिरनी-बिरनी, गोसांय सब रोॅ गीत जौं हुनी सुनावेॅ लागै छेलै तेॅ मंत्रमुग्ध होय जाय छेलियै। आय अंगिका के प्रति प्रेम आरो त्याग शायद उनके निश्छल आत्मा रोॅ देन छेकै।
लाख बाधा बंधन हमरा चलै के रसता में एैलै। मतुर आपनोॅ व्यवहार सें बनैलोॅ जे मित्र छेलै वें कहियो साथ नै छोड़लकै। ‘माँ की ममता’ के बाद हमरोॅ लिखलोॅ सतरह नाटक मंचन में काली मंडल, सीताराम सिंह, शंकर यादव, सदानंद कुशवाहा, शालिग्राम चक्रवर्ती, राजेन्द्र रंगीला, रघुनंदन मंडल, सिकन्दरेआजम, नईम खाँ, मो. मुस्तफा, राजकिशोर, अश्विनी, नंदकिशोर कापरी, आरनी आरो प्रबंधक नेवालाल मंडल, नाट्य श्रृंगार विशेषज्ञ एस.एन मेहता जे हमरोॅ सहयोग करनें छै ऊ भी समय के साथ खोज के विषय छै। यैं सब साथी कहियो बात नै उठैलकै।
नाटक मंचन लेली घरेघर जायकेॅ साथी साथें मंच बनाय लेॅ चौकी ढोवोॅ, बांस के खंभा गाड़वोॅ, चंदा लेली दुआरे दुआर टौअैबोॅ, महिना- महिना रिहर्सल करबोॅ, रात-रात भर जागबोॅ, याद आवै छै तेॅ मन प्राण औटेॅ लागै छै। भगवानोॅ सें विनती करै छियै कि ऊ दिन लौटाय देॅ प्रभु! मतुर ई केकरोॅ लौटलोॅ छै। ऊ जवानी के दिन छेलै। उमस,
लू सें भरलोॅ जेठ-बैसाखोॅ के दुपहरिया भी शीत सें भरलोॅ लागै छेलै।
सम्मेलन के अठारह महाधिवेशन यही जवानी के देन छेकै, जै दिनोॅ केॅ आय दिल्ली सें अशोक लव, पटना सें नरेश
पाण्डेय ‘चकोर’, डॉ. शिवनारायण, रामयतन यादव, आरा सें डॉ.उर्मिला कौल, भागलपुर सें रंजन, शिवकुमार शिव, आमोद मिश्र, राजकुमार, रामावतार राही, डॉ. बहादुर मिश्र, डॉ. मधुसूदन झा, दिनेश तपन, डॉ. आभा पूर्वे, बाँका सें शंकरदास, प्रेमधन कर्ण, प्रो.रामनरेश भगत याद करि कहै छै कि है आदर सत्कार, खिलौन- पिलौन सें फिरू भेंट नै।’’ सम्मेलन लेली आभियो हमरा कहै छै, ई पुनसिया के धरती पर काव्य पाठ लेली। कैन्हेॅ कि नाटक,
कविता, गीतोॅ सें भरि केॅ ई धरती केॅ हम्में तैयार करनें छियै बहुते परिश्रम आरो लगन सें। यहाँ पर कविता के नामोॅ पर हजारोॅ के भीड़ सहज ही जमा होय जाय छै। रामावतार राही, आमोद मिश्र आरो राजकुमारें बराबर कहै छै-‘‘बड़ी मेहनत सें ई जमीन तैयार करनें छोॅ तोंय विमल जी।’’
1972 में बी.ए0 आनर्स करी केॅ हम्में ‘पागल विद्रोही’ नाटक लिखलियै जेकरा में हमरा खूब नाम यश मिललै।
वहेॅ साल गाँव के लोगोॅ केॅ प्रेरित करी केॅ हायस्कूल के स्थापना करी केॅ वही स्कूलोॅ में हिन्दी शिक्षक के रूप में खटेॅ लागलियै, आय हमरा रिटायर होला के बादोॅ गाँव के लोगें एक कर्मठ योग्य शिक्षक के रूपोॅ में हमरोॅ चरचा, प्रशंसा करतें नै अघाय छै। 1976 में खुशीलाल मंजर केॅ यै रूपोॅ में जानलियै कि हुनी कविता भी लिखै छै। एक बहुत अच्छा साथी मिली गेलोॅ छेलै। साथी के रूपोॅ में अश्विनी बगलोॅ में घोॅर होय के कारण बच्चै सें छेलै मतुर मैट्रीक पास करला के बाद ओकरा सें नजदीकी 1974 के जयप्रकाश आंदोलन में होलै। मतुर ई साथ भी बेशी दिनोॅ लेली नै
रहलै। ऊ नौकरी पावै लेली भटकी रहलोॅ छेलै।
1977 के एक सांझ कमलपुर के नंदनंदन सें भेंट होला पर पुनसिया में साहित्य साधना केन्द्र के नींव रोॅ विचार एैलेॅ आरो नंदनंदन, खुशीलाल मंजर आरो हम्में मिली केॅ 1978 के 26 जनवरी केॅ ई संस्था के विधिवत स्थापना करलियै। प्रसून लतांत यहेॅ साल आवी केॅ हमरा सें जुड़लै। एक छोटोॅ भाय नांकी लतांत दिन रात साथैं रहलै। संस्था के महामंत्री होला के नातें हमरोॅ काम आरो जिम्मेवारी जादा छेलै। 1979 के नवम्बर महिना में संस्था के पहिलोॅ महाधिवेशन आचार्य आनन्द शंकर माधवन के अध्यक्षता में सफलता के साथ सम्पन्न होलै। यही अवसर पर संस्था के मासिक पत्रिका ‘रचना’ के भी लोकार्पण होलोॅ छेलै जेकरोॅ संपादन ‘विमल विद्रोही’ के नाम सें हम्में करनें छेलियै।
यै सम्मेलन के सबसें बड़ोॅ उपलब्धि अमरेन्द्र के साथ दोस्ती केॅ हम्में मानै छियै। प्रसून तेॅ घरोॅ के एक सदस्य के
रूपोॅ में छेवै करलै, साथ में अमरेन्द्र भी वही रूपोॅ में प्रतिष्ठित होय गेलै। तीन साल तांय आचार्य आनन्द शंकर माधवन के मंदार विद्यापीठ के आवास पर हर एक रविवार केॅ भागलपुर, बाँका के सभ्भेॅ युवा कवि, साहित्यकार जुटै आरो पुरकस कविता पाठ हुअै। है दुःख हमरा बनलोॅ रहि जैतेॅ कि ई युवा प्रतिभा रोॅ संगठन के स्तर पर सार्थक रचनात्मक उपयोग हुनी नै करै पारलकै आरो एक बहुत बड़ोॅ करवट लै सेॅ मंदार रोॅ धरती चूकी गेलै।
यहाँ सें टूटी केॅ ई जुटौन छिन्न-भिन्न होय गेलै। प्रसून नें पत्रकारिता आरो समाज के सेवा रोॅ व्रत लैकेॅ भागलपुर छोड़ी केॅ देश रोॅ कोना-कोना घूमेॅ लागलै आरो हम्में आरो अमरेन्द्र आपनोॅ गाँव रोॅ धरती पुनसिया सें साहित्य साधना में जूटी गेलियै जे आयतक जारी छै। 1977 में ही ‘पागल विद्रोही’ नाटक छपी चुकलोॅ छेलै। 1983 में अमरेन्द्र के ही देखरेख में ‘अंधेरी घाटियों के बीच’ कविता संग्रह प्रकाशित होलै जेकरोॅ समीक्षा डॉ. रामदरश
मिश्र ने तखनकोॅ राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध पत्रिका ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में करलकै। हालावाद के प्रवर्तक कवि हरिवंश राय बच्चन सें लैकेॅ ढेर सिनी विद्वान आलोचक नें ऐकरा पर आशंसा भेजी केॅ हमरोॅ काव्य प्रतिभा सें हमरा अवगत करैलकै। यही बीचोॅ में 1978 के ही एक सांझ केॅ हमरोॅ गाँव मिर्जापुर के आवास पर खुशीलाल मंजर, अमरेन्द्र आरो हमरा उपस्थिति में अमरेन्द्र नें ही साहित्य साधना केन्द्र के नया नामकरण ‘‘समय साहित्य सम्मेलन’’ के रूपोॅ में करलकै आरो हमरोॅ नाम विमल विद्रोही सें अनिरूद्ध प्रसाद विमल करि केॅ एक नया इतिहास रचै के शंखनाद करलकै। ‘रचना’ में एक आलेख लिखला के बाद चुप्पी साधी केॅ बैठलोॅ अश्विनी मधेपुरा सें ट्रांसफर कराय केॅ 1983 में गाँव के स्कूल में एैला के बादे लेखन शुरू करलकै आरो आय एक गीतकार आरो कवि के रूपोॅ में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित छै। प्रो. नवीन निकुंज भी सात-आठ पुस्तकोॅ के प्रकाशन करी केॅ भागलपुरेॅ सें इतिहास
रचै में भिड़लोॅ छोॅ। प्रदीप प्रभात अंगिका लोकगाथा काव्य के प्रकाशन के साथें झारखंड में अंगिका केॅ दोसरोॅ राजभाषा के स्थान दिलाय केॅ श्रेष्ठ सृजन में लागलोॅ छै। कथाकार के रूप में सुरेन्द्र प्रसाद यादव ‘मगरी’, ‘खड़सिंघी’ कहानी संग्रह आरो ‘भदवा चन्दर’ उपन्यास लैकेॅ देश भरि में चर्चित छै। दोसरोॅ तरफ सम्मेलन
के संयुक्त सचिव ओड़हारा के धनंजय मिश्र दोहा छंद में जिनका बिहार के बिहारी होय के गौरव प्राप्त छै, हमरोॅ यही मांटी के लाल छेकै। पाँच हजार सें भी जादा दोहा लिखै के रिकार्ड इनका नाम छै। अचल भारती भी यही सम्मेलन के शुरूआती सदस्य छेकै जिनी लगातार ‘समय’ के सात-आठ अंक तांय प्रधान संपादक रहलै। पुनसिया सें दू किलोमीटर दूर उनकोॅ गाँव सोहानी समय साहित्य सम्मेलन के 1992 के महाधिवेशन रोॅ यादगार क्षण
देश भर के साहित्यकारें वहाँ दूपहर में बितैनें छेलै आरो भागलपुरी आम आरो कतरनी चुड़ा के स्वाद लेनें छेलै। अखनी अचल भारती बाँका जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष छोॅ आरो क्षेत्र भर में सास्कृतिक कार्यक्रम, काव्य गोष्ठी के आयोजन के सिरमौर छोॅ। आय भी आपनोॅ साहित्य सामर्थ्य रोॅ पताका जहाँ-जहाँ जे भी छै, समय साहित्य सम्मेलन केॅ आपनोॅ मानी केॅ ही करी रहलोॅ छै।
हम्में तेॅ सम्मेलन के ई विरवा केॅ एक विशाल बरगद के रूपोॅ में फलतें-फूलतैं देखी केॅ फुला नै समाय छियै। समय’
हिन्दी आरो ‘अंगधात्री’ अंगिका भाषा में दू-दू नियमित पत्रिका रोॅ प्रकाशन हमरोॅ संपादन में यही धरती सें होय रहलोॅ छै। पचास सें जादा महत्वपूर्ण कृति रोॅ प्रकाशन के श्रेय भी सम्मेलन केॅ प्राप्त छै। महाधिवेशन के दौरान सौसे दक्षिण बिहार आरो झारखंड तांय स्कूल-स्कूल, गाँव-गाँव, घूमी केॅ अंगिका भाषा रोॅ प्रचार-प्रसार में सम्मेलन के नै भूलैवाला योगदान छै। यही सम्मेलन के 1989 के राष्ट्रीय महाधिवेशन में अंगिका लेली दिल्ली जाय केॅ
धरना-प्रदर्शन के कार्यक्रम बनलोॅ छेलै। डॉ. पुष्पपाल सिंह, पाटियाला, पंजाब सम्मेलन के आठमोॅ महाधिवेशन रोॅ अध्यक्षता करनें रहै जेकरा में हमरोॅ लिखलोॅ अंगिका नाटक ‘सांप’ देखी केॅ कहनें छेलै कि-‘अंगिका जैसी भाषा में भी इतना स्तरीय नाटक लिखा जाता है, मैं सचमुच अभिभूत हूँ।’
बारहवोॅ अधिवेशन जेकरोॅ अध्यक्षता झारखण्ड लोकसेवा आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. गोपाल प्रसाद सिंह नें करनें छेलै। सम्मेलन के अंगिका प्रेम सें अतन्हेॅ प्रभावित होलोॅ रहै कि यहाँ सें गेला के महिना भर बादे झारखंड में अंगिका केॅ प्रतियोगी परीक्षा में दोसरोॅ राजभाषा के रूप में स्थान दिलवैनें रहै। आय जौं अंगिका के अकादमी बनलै तेॅ ऐकरा में हमरोॅ सम्मेलन के महत्वपूर्ण योगदान सें कोय नकारेॅ नै पारेॅ। हिन्दी के साथें अंगिका सेवा में हमरोॅ ई धरती कोनोॅ कोर-कसर नै छोड़नें छै। 1988 के ऊ यादगार क्षण जबेॅ डॉ0 अमरेन्द्र रोॅ ‘गेना’ आरोॅ हमरोॅ ‘कागा की
संदेश उचारै’ जैन्होॅ कालजयी प्रबंध काव्य कृति रो लेखन आरो प्रकाशन एक्केॅ साल में यही सम्मेलन सें होलोॅ छेलै। ऊ क्षण वहेॅ रं इतिहास के विषय छेकै जेनां एक्के साल में जयशंकर प्रसाद के ‘कामायनी’ आरो मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ महाकाव्य प्रकाशित होलोॅ छेलै। ई दूनोॅ प्रबंध काव्य कृति अंगिका में श्रेष्ठतम लेखन केॅ प्रमाणित करै वाली प्रौढ़तम कृति छेकै। अखनी फिलहाल जबेॅ हम्में पैसठवां बरस पार करी रहलोॅ छियै आरोॅ चार पाँच कठिन असाध्य रोगोॅ सें आक्रांत छियै, तैइयो मातृभाषा अंगिका के साहित्य भंडार भरै में जी जान सें लागलोॅ छियै। ‘जैवा दी’ उपन्यास आरो ‘चानो’ कहानी संग्रह हमरोॅ पैसठवां बसंत के ही उपहार छेकै। ‘समकालीन अंगिका कहानी’, संस्मरण संग्रह ‘समय रोॅ सूरज’ के संपादन भी यही अंतराल के देन छेकै।
आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री आरो डॉ0 महेश्वरी सिंह ‘महेश’ के चरणरज सें पवित्र होलोॅ हमरोॅ ई धरती रोॅ
ही पुण्यफल छेकै कि हमरोॅ ई दिल जौं पुनसिया, मिर्जापुर में धड़कै छै तेॅ ओकरोॅ आवाज दिल्लीये नै सौसें देशोॅ में सुनाय दै छै। सौसें देशभर के हजारों- हजार विद्वान साहित्यकारोॅ के साथें हमरा दिलोॅ के धड़कवोॅ सौभाग्य के बात नै छेकै तेॅ, की छेकै। ई सब के सब इतिहास आकि कालपात्र के विषय छेकै जेकरा आय ई संस्मरण के माध्यम सें हम्में काल के छाती पर गाड़ी रहलोॅ छियै।
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संस्मरण-क्रम
1. अंगिका
केरोॅ वामन : डॉ. माहेश्वरी सिंह ‘महेश’
2. अंगिका
के ऋषि कवि : महाकवि सुमन सूरो
3. टूटी
गेलै अंग वीणा के तार : राम शर्मा अनल
4. अंगिका
के साधक तपस्वी : चकोर जी
5.विराट
व्यक्तित्व के साहित्यकार : डॉ. परमानन्द पांण्डेय
6.हमेशा
याद करलोॅ जैतै : राकेश पाठक
7.अंगिका
व्याकरण रोॅ पाणिनी : डॉ. डोमन साहु समीर
8.कवित्त छन्द के कोमल कवि : अनिल शंकर झा
9.हास्य
रस रोॅ सफल सुच्चा कवि : सुभाष चन्द्र भ्रमर
10.साहित्य
लेली समर्पित व्यक्तित्व : नंदनंदन
11.अंगिका
व्यंग्य रोॅ शिखर पुरुष : सदानन्द मिश्र ‘‘साहित्यिक साँढ़’’
12.प्रेममय
काव्य स्वभाव के धनी कवि : जयनारायण ‘बेचारा’
13.अंगिका
के औघड़ कवि : भुवनेश्वर सिंह भुवन
14.ठेठ
अंगिका गद्य रोॅ साहित्यकार : महेन्द्र जायसवाल
15. हास्य
रस के सफल सिद्ध कवि : जगदीश पाठक ‘मधुकर’
16. व्यंग्य
विधा के विरल कवि : गुरेश मोहन घोष ‘सरल’
17. सच्चै
में हुनी मंदार छेलै : आनन्द शंकर माधवन
18.साहित्य
आरोॅ जिन्दगी रोॅ जीवट पुरुष : डॉ. श्यामसुन्दर घोष
19.जयप्रकाश
: ऊ जे. पी. ही छेलै
20. लालटेन
वाला भूत : जोतिष गुरुजी
21.संगीत,
नाट्य
कला विशारद : सत्यनारायण मेहता
22.संगठन
आरोॅ साहित्य के प्रतीक पुरुष : सतीश चन्द्र झा
23.सफीक
मियाँ
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