कृति : अतिरथी
कवि : इं. नन्दलाल यादव ‘सारस्वत’ विद्यावाचस्पति
प्रथम संस्करण :
रेखांकन : अनिल
प्रकाशक : अंगिका संसद, भागलपुर
मुद्रक : गीता प्रेस, भागलपुर
मूल्य : टाका
अतिरथी
अंगिका खण्ड-काव्य
.......
कवि
इं. नन्दलाल यादव ‘सारस्वत’
विद्यावाचस्पति
.....
सारस्वत कवि की सारस्वत कृति : अतिरथी
- डॉ. अमरेन्द्र -
‘अतिरथी’ निस्संदेह एक सारस्वत कवि की ऐसी काव्यकृति है, जो खण्ड काव्य के रूप में होते हुए भी, काव्य के उदात्त गुणों से संयुक्त होकर महाकाव्य की गरिमा को स्पर्श करता काव्यरूपक बन गया है ।
अगर रचनाकार को अपने विषय का पूरा-पूरा ज्ञान हो, और उस सा°चे का भी, जिसमें ढल कर काव्य का विषय आकार ग्रहण करने वाला है, तो उस कृति की श्रेष्ठता निर्बाध हो जाती है । ‘अतिरथी’ को पढ़ते हुए मैंने ऐसा ही अनुभव किया ।
यह काव्य रूपक अंग देस के चÿवर्ती सम्राट कर्ण के कवच-कुण्डल के दान की कथा पर आधारित काव्य हैµकर्ण, जो रणभूमि में ही अतिरथी की तरह नहीं शोभता रहा, बल्कि जिसके दान की कथा भी धरती पर अद्वितीय है ।
प्रस्तुत प्रबंध महाभारत की एक घटना पर आधारित है, लेकिन इसमें बहुत कुछ ऐसा है, जो महाभारत का नहीं, और यही बहुत कुछ, न केवल कर्ण को नया बनाता है, बल्कि काव्य को भी; कवि प्रतिभा को भी ।
यह काव्य रूपक न केवल कर्ण के उदात्त व्यक्तित्व का मुखर वक्ता बन कर उपस्थित होता है, और न केवल इस काव्य से कवि की उपराष्टन्न्ीयता जीवन्त हो उठी है, बल्कि इसके कई सर्गों में सत्ता और समृद्धि-प्राप्ति के लिए मनुष्य के कुकृत्य, अनैतिक आपा-धापी का, कथा के बीच से जो विरोध है, वह इस खण्डकाव्य की अपनी कमाई पूंजी है ।
‘अतिरथी’ में वर्णन-शैली बहुत मुग्ध करती है और कवि-विवेक भी । काव्य के प्रथम सर्ग में कवच-कुण्डल के लिए युधिष्ठिर की एक उक्ति है,
‘माय-बाप रं ≈ दोनों हीछाती-कानोॅ सें सटलोॅ छैजन्में सें आशीष बनी केॅआय तांय भी नै हटलोॅ छै ।’
इस उक्ति में सॉदय को यह भी भ्रम हो जा सकता है कि युधिष्ठिर को भी कर्ण की जन्म-कथा ज्ञात थी, लेकिन गंभीरता से देखने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह उक्ति कवच-कुण्डल के लिए युधिष्ठिर का अप्रस्तुत-विधान भर है, लेकिन यहा° कवि सारस्वत ने जिस तरह से इस बात को ध्वनि में रखने की कोशिश की है कि कर्ण के प्रति माता कुन्ती की चिन्ता भी वैसी ही थी, जैसी पिता सूर्य की। वह अद्भुत है । और कवि ने संकेत में अगर इसकी ओर भी इशारा किया हो, तो आश्चर्य नहीं कि अग्रज होने के कारण संभव है कर्ण की जन्मकथा की भनक युधिष्ठिर को भी अवश्य ही होगी । कवच-कुण्डल में कुन्ती-सूर्य की छटा देखना सामान्य बात तो नहीं ही है ।
काव्य की यह पूंजी काव्य के कई स्थलों पर विभिन्न रूपों में देखी जा सकती है । यह कोई सामान्य बात नहीं है कि कवि अपने काव्य-नायक के समक्ष विरोधी पात्रा की भव्यता को भी धूमिल नहीं होने देता । ‘अतिरथी’ में कवि सारस्वत कर्ण के पक्ष में होकर भी तटस्थ द्रष्टा की भूमिका में आते हैं और इसी कारण यहा° अगर कर्ण और उसके कवच-कुण्डल के लिए यह अप्रस्तुत विधान हुआ है,
केन्होॅ चमकै कवच कुण्डलो
सूर्य छाती-कानोॅ पेॅ झूलै
आकि कोनो स्वर्ण कमलदल
काया-मानसरोवर फूलै ।’
तो अर्जुन के लिए भी कवि की यह कल्पना कम भव्य नहीं,
अर्जुन ई देखी केॅ उठलै
वीर पुरुष रं सभा बीच में
कोनो दिव्य कमल जों खिललोॅ
रहेॅ निराशाजन्य कीच में
(प्रथम सर्ग )
अपने इसी कवि स्वभाव के कारण नन्दलाल यादव सारस्वत इस सम्पूर्ण काव्य रूपक में संतुलन बनाए रख सके हैं । नवीनता के मोह में कवि कहीं भी मूर्तिभंजक बन कर खड़ा नहीं है ।
यह कवि-कौशल ही है कि कौन्तेय के संवाद में कृष्ण को लाकर कवि ने कृष्ण की प्रमुखता को स्थिर कर दिया है, क्योंकि महाभारत का बुद्धि तत्व तो कृष्ण ही थे, देखें,
आरो बोलेॅ लागलै‘डर नैजब तांय हमरोॅ साथ कृष्ण छैराह निकलनै छै केन्हौ केॅकतनो अन्धड़, आग, पवन छै ।’कवि सारस्वत के पास विराटता को बांधने के लिए अपनी भाषा-शैली है । जहाँ एक ओर ‘कतनो अन्धड़, आग, पवन छै’ कह कर ये कृष्ण की विराटता को घोषित करते हैं, तो दूसरी ओर युधिष्ठिर की इस उक्ति से, कवच-कुण्डल युक्त कर्ण की करालता भी,
‘कवच-कुण्डले काफी छै बसई रण के फल बदलै लेलीहाथी के गोड़ोॅ नीचू मेंकी टिकतै ई फूल चमेली ।’यहाँ कर्ण और पाण्डव की युद्ध-शक्ति के भेद को मात्रा एक उदाहरण से जिस तरह से कवि ने देखा है, वह वयस्क कवि के वयस्क विवेक का प्रतिफल है, सामान्य कवि के बूते की यह बात नहीं होती ।
‘अतिरथी’ में कवि-चातुर्य-काव्य के अन्तिम सर्ग ‘आकाशवाणी’ में तो और भी चरम पर खड़ा होता है । यह वह सर्ग है, जो द्वापर की कथा को कलियुग के द्वार पर ला खड़ा करता है । आकाशवाणी होती है, लेकिन यह वाणी किसकी है, यह रहस्य पूरे सर्ग में नहीं खुलता । इसके पीछे के कवि-अभिप्राय को समझना होगा ।
‘आकाशवाणी’ सर्ग में जिस सत्य को स्थापित किया गया है, उसके विरोध में कोई विरोधी भी नहीं हो सकता, जैसे यह एक ऐसा सच है, जिस पर पूरी संसद एकमत हो । अगर यह आकाशवाणी सूर्य, कृष्ण, युधिष्ठिर, इन्द्र की होती तो फिर बात दूसरी भी हो सकती थी, कुछ न कुछ शंका की खोज होने लगती, इसी से यहा° सिर्फ आकाशवाणी गूंजती है, चेहरा कहीं नहीं दिखता । ‘अतिरथी’ की यह रूप-संरचना काव्य को उदात्त बनाती है ।
लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद इस काव्यरूपक के शीर्षक के औचित्य पर प्रश्न बना ही रहता है । अगर यह प्रबंध युद्धरथ कर्ण पर केन्द्रित होता तो शीर्षक का औचित्य समझ में आता लेकिन कर्ण के कवच-कुण्डल-दान की कथा पर आधारित इस प्रबन्ध का नाम कवच-कुण्डल ही होता तो शीर्षक के साथ वैसा ही न्याय होता, जैसा कवि ‘सारस्वत’ ने पूरे प्रबंध में विषय, पात्रा, शिल्प और शैली के साथ किया है । जो हो, अतिरथी कर्ण पर केन्द्रित यह काव्यरूपक, काव्य में अतिरथी है, कोई शक नहीं ।
सम्पर्क : सम्पादक, वैखरी
लाल खाँ दरगाह लेन, सराय,
भागलपुर, बिहार ।
.....
मनोॅ के बात
कहलोॅ जाय तेॅ अंगराज कर्ण पर को∏यो कुछ लिखलोॅ जाय, कम्मे होतै । कर्ण पर राष्टन्न्कवि रामधारी सिंह दिनकर नें रश्मिरथी में बहुत कुछ लिखी देलेॅ छै, आरो भी कत्तेॅ-कत्तेॅ लिखलोॅ जाय रहलोॅ छै; लिखलोॅ जैतै । हमरोॅ ई प्रयास वहा दिशा में एक नया प्रयास छेकै । यहा° कोय पाठक ई बात पूछेॅ सकै छेॅ कि हम्में ई काव्य कैन्हें लिखलियै, तेॅ एकरोॅ जवाब में हम्में ई बताना जरूरी समझै छियै कि हमरोॅ मनोॅ में अंगराज कर्ण पर काव्य लिखै के मोॅन कैन्हें आरो केना बनलै !
पहलोॅ बात तेॅ यहेॅ छेकै कि अंग भूमि दानवीर कर्ण सें जुड़लोॅ छै, जे अंग देस के भाषा अंगिका छेकै, यै लेली अंगिकाहै में कर्ण के बारे में कुछ लिखना चाही । अंगिका में कर्ण पर लिखला सें दू बात होतै, पहलोॅ बात तेॅ ई होतै कि आम अंगिका भाषा-भाषी कर्ण के दानवीर चरित्रा केॅ आत्मसात करेॅ सकतै आरो दोसरोॅ बात ई कि कर्ण के दानवीरता साथें अंग प्रदेश के अंगिका भाषा केॅ समृद्ध करै में हमरो कुछ योगदान होय जैतै ।
एक टा बात, जे हमरोॅ मनोॅ में आरो छेलै, वहूं कर्ण पर लिखै लेली हमरा प्रेरित करलकै । हमरोॅ बाबूजी हमरा सिनी केॅ बच्चा में महाभारत के कहानी खूब सुनाय छेलै । हुनी कहै कि महाभारत के लड़ाय में एक-सें-एक रथी, महारथी और अतिरथी छेलै । सुनाय वक्ती बाबू समझैतो जाय कि रथी रथ पर सवार होय केॅ लड़ैवाला योद्धा कहलोॅ जाय छै, महारथी रथोॅ पर सवार होय केॅ लड़ै वाला बड़ोॅ योद्धा केॅ कहलोॅ जाय छै आरो अतिरथी रथ पर सवार होय केॅ लड़ैवाला सबसें बड़ोॅ योद्धा छेलै । भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आरो कर्णµहिनका चारो केॅ पराजित करना असंभव छेलै, हिनका सिनी में भीष्म, द्रोण आरो कर्ण केॅ छल-प्रपंच सें मारलोॅ गेलै । धर्मग्रंथ के मान्यतानुसार कृपाचार्य तेॅ अमरे छै आरो अभी तांय जिन्दे मानलोॅ जाय छै । बाबूजी हमरा सिनी केॅ एकठो श्लोक याद करावै छेलै,
अश्वत्थामा बर्ली व्यासो हनुमानः
विभीषणः कृपः परशुरामश्चसप्रेताम् स्मरेत नित्यम् मार्कण्डेयथा अष्टमम् जीवेत वर्ष शतंसाग्रमपि मृत्यु विवर्जित : ।यानि कि हिन्दू धर्म के मान्यतानुसार श्लोक में वर्णित सब आठो देव तुल्य लोग आय तांय जिन्दे छो ॅत । हम्में ई श्लोक यहा° कृपाचार्य के अमर, अपराजेय होय के प्रमाण वास्तें उद्धृत करलेॅ छियै । भीष्म के बारे में तेॅ जानथै छियै कि शिखंडी केॅ बीचोॅ में लानी केॅ हुनका मारलकै । गुरु द्रोणाचार्य केॅ अनजानोॅ में सत्यवादी युधिष्ठिर सें ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो’ झूठ बोलवाय केॅ मारलोॅ गेलै ।
हमरा बाबूजी बताबै, कि कर्ण भी तेॅ कवच-कुण्डल के रहतेॅ मरै वाला नै छेलै । धनुर्विद्या में भी निपुने छेलै । ई रं हिनका चारो केॅ अतिरथी कहना अतिशयोक्ति या बड़बोलापन नै होतै ।
समय गुजरलै, आरो ई बात हमरोॅ मनोॅ में होलै कि महादानी कर्ण केॅ अतिरथी कर्ण के रूप में आम आदमी के बीच रखै लेली महाकाव्य लिखलोॅ जाय आरो महाकाव्य के नाम ‘अतिरथी’ रखलोॅ जाय । कर्ण केॅ अतिरथी कहै के बहुत्ते कारण छै । अतिरथी केॅ महारथी सें तन-बल, मनोबल, त्याग, धर्म, बलिदान आरनी में बढ़ी केॅ होना चाही । भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आरो कर्णµचारो अतिरथी में काफी समानता छै । जेना भीष्म, द्रोणाचार्य आरो कृपाचार्य हस्तिनापुर राज्य सें बंधी केॅ युद्ध करी रहलोॅ छेलै, होनै कर्ण भी मित्राता सें बंधी केॅ दुर्योधन के पक्ष सें लड़ी रहलोॅ छेलै । युद्धभूमि में कुन्ती केॅ देलोॅ वचन निभावै लेली, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव केॅ पकड़ी केॅ छोड़ी देना कत्तेॅ साहस आरो वचनबद्धता के बात छेकै । कर्ण भी तेॅ ई सब गुणोॅ सें पूर्ण छेलै । युद्धभूमि में कर्ण नें भी अश्वसेन नाम के सर्प के, काफी आग्रह के बावजूद, सहयोग नै लेलकै । मनोबल हेनोॅ कि रंगभूमि में अर्जुन केॅ चुनौती दै लेॅ दहाड़तेॅ होलोॅ प्रवेश करी गेलै, जबकि ≈ राजपरिवार के आयोजित कार्यÿम छेलै । वाह रे कर्ण के निर्भीकता । कर्ण एक्के साथें रथयुद्ध, खड्गयुद्ध, गदायुद्ध, गजयुद्ध, तोमर युद्धµसब्भे में निपुण छेलै । कर्ण वास्तें ‘अतिरथी’ नाम हमरा एत्तेॅ अच्छा लागलै कि हम्में ई नाम सें कुच्छू जल्दिये प्रकाशित करै लेली व्यग्र होय गेलियै । मजकि सम्पूर्ण महाकाव्य लिखै में तेॅ ढेरे समय लागतियै, आरो ई आसान कामो नै छेकै । यही लेली इखनी हम्में एक प्रसंग पर काव्य लिखी केॅ अपना सब के सामना राखी रहलोॅ छियै, मतरकि काव्य के नाम वहेॅ राखलेॅ छियै, जे शुरू में सोचलेॅ छेलियै । लोभवश ।
आपने के
नन्दलाल यादव ‘सारस्वत’
नवान्न, दिसम्बर
............................- क्रम -प्रथम सर्ग
दूसरोॅ सर्ग
तेसरोॅ सर्ग
चौथोॅ सर्ग
पांचमोॅ सर्ग
.....
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.